To the Last Rock Travelogue"

" />
लोगों की राय

यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक

आखिरी चट्टान तक

मोहन राकेश

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7214
आईएसबीएन :9789355189332

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

320 पाठक हैं

"विचारों की गहराई और यात्रा के अनुभवों का संगम : मोहन राकेश का आख़िरी चट्टान तक यात्रा-वृत्तान्त"

वास्को से पंजिम तक


मार्मुगाव गोआ का टर्मिनस स्टेशन है। वहां से पंजिम जाने के लिए फेरी लेनी पड़ती है। मैंने सोचा था कि रात मार्मुगाव में रहकर सवेरे फेरी में पंजिम चला जाऊँगा। पर मार्मूगाव से दो स्टेशन पहले गाड़ी में एक महाराष्ट्र युवक कारवाड़कर से परिचय हो गया। उसने कहा मुझे रात को मार्मुगाव न जाकर वास्को में ठहर जाना चाहिए। वास्को या वास्कोडिगामा मार्मुगाव से पहला स्टेशन है। कारवाड़कर वहीं पर रहता था। उसने यह भी कहा कि मुझे कुछ दिन गोआ में रहना हो, तो उसके लिए भी सबसे अच्छी जगह वास्को ही है, पंजिम नहीं।

उसने अनुरोध किया कि मैं कम-से-कम एक रात वास्को में उसका मेहमान बनकर रहूँ। सुबह वह मुझे मार्मुगाव से पंजिम की फ़ेरी में बैठा देगा।

मैं उसके साथ वास्को में उतर गया। करवाड़कर एक साधारण क्लर्क था। घर में उसके अलावा उसकी माँ और पत्नी ये दो ही व्यक्ति थे। उसहा ब्याह हुए दो महीने हुए थे। उसके स्वभाव में एक विशेषता मैंने देखी कि जहाँ एक अपरिचित व्यक्ति के लिए वह हर तरह का कष्ट उठाने को तैयार था, वहाँ अपनी पत्नी से एक मध्यकालीन पति की तरह सब तरह का काम लेना अपना अधिकार समझता था। आरम्भ से गोआ में रहने के कारण उसे सिर्फ़ कोंकणी ही आती थी- अँग्रेज़ी के वह छोटे-छोटे वाक्य ही बना पाता था। मैंने उससे कहा कि मैं अपने लिए नहाने का पानी कुएँ से निकाल लूँगा, तो वह बोला, "नो। अवर वाइफ़ इज़ इट।" मैंने शेव करके अपना सामान धोना चाहा, तो वह भी उसने मेरे हाथ से ले लिया और कहा, "नो, अवर वाइफ़ ड़ज इट।" घर की सीमाओं में किया जानेवाला कोई भी काम, चाहे वह मेहमान के सूटकेस को यहाँ से उठाकर वहाँ रखना ही क्यों न हो, उसकी दृष्टि में उसकी पत्नी के कार्यक्षेत्र में आता था।

कारवाड़कर स्टेशन से मुझे सीधे अपने घर ले आया था, इसलिए मैं रात को वास्को शहर ठीक से नहीं देख पाया था। सुबह कारवाड़कर के साथ मार्मुगाव हार्बर की तरफ़ जाते हुए पहली बार उस शहर की एक झलक देखी। वास्को मार्मुगाव से दो मील इधर है। बन्दरगाह पर आनेवाले बेड़ों और जहाज़ों के यात्री अगर अपने लिए कुछ ख़रीदना चाहें, तो उन्हें वास्को ही आना पड़ता है। मार्मुगाव अघनाशिनी नदी के मुहाने पर प्राकृतिक रूप से बना बन्दरगाह है। वास्को नदी और समुद्र के संगम के इस ओर पड़ता है। वहाँ के छोटे-से बीच से टकराती लहरें बहुत शालीन लगती हैं। बीच सड़क से आठ-दस फुट नीचे है। सड़क के साथ-साथ बीच की ओर चौड़ी मुँडेर बनी है। रात के समय मुँडेर के पास खड़े होकर देखने पर मार्मुगाव हार्बर में खड़े जहाज़ एक झील में बने छोटे-छोटे घरों-जैसे लगते हैं। वास्को बहुत छोटा-सा शहर है, पर बहुत खुला बसा हुआ है। वहाँ की जनसंख्या आठ-दस हज़ार से ज्यादा नहीं है, पर उसका फैलाव बहुत है और निर्माण एक अच्छे आधुनिक शहर की तरह हुआ है। जीवन भी वहाँ अपेक्षाकृत शान्त है। पर वहाँ का साधारण-से-साधारण होटल भी उन दिनों बम्बई के अच्छे-से-अच्छे होटल से अधिक महँगा था। यह शायद एक्सपोज़ीशन की वज़ह से था।

हार्बर से कारवाड़कर लौट गया और मैं पंजिम जानेवाली फ़ेरी में बैठ गया। पंजिम मुझे बहुत साधारण शहर लगा। कुछ आधुनिक इमारतें, तड़क-भड़कदार होटल और भीड़-वही कुछ जो एक औसत दर्जे की राजधानी में हो सकता है। रात को मैं वहाँ गुजरात लॉज में ठहरा। एक ही बड़े-से कमरे में सात-आठ पलँग बिछे थे, जिनमें एक मुझे दे दिया। पलँग में कुछ इस तरह के स्प्रिंग लगे थे कि जब भी मैं करवट बदलता, तो वह बुरी तरह चरमरा जाता, जिससे मेरी नींद टूट जाती। नींद टूटने पर हर बार मुझे एक ही व्यक्ति की भारी-सी आवाज़ सुनाई देती जो दो श्रोताओं को गुजरात लॉज में घटित हुए पुराने क़िस्से सुना रहा था। एक बार मेरी नींद टूटी तो वह कह रहा था, "वह जापानी अपने साथ छिपाकर दस-बारह शराब की बोतलें ले आया था। उसे पता नहीं था कि गोआ में शराब सस्ती है। उसने सोचा कि जापानी शराब यहाँ अच्छे दाम में बेच लेगा। पर जब यहाँ आकर देखा कि शराब पानी के मोल मिलती है, तो बैठकर अपनी शराब ख़ुद ही पीने लगा। हमने उससे कहा कि भले आदमी, इतनी शराब अकेला कैसे पी जाएगा? कम क़ीमत मिलती है, तो कम पर बेच दे। कुछ नुक़सान ही सही। पर वह नहीं माना। दिन-भर न कहीं जाता-आता था, न किसी से मिलता-जुलता था; बस बैठकर अपनी शराब पीता रहता था...।"

यहाँ पर मुझे ऊँघ आ गयी। फिर आँख खुली, तो वह कोई और किस्सा सुना रहा था, "...कप्तान ने उसे जहाज़ पर ले जाने से इनकार कर दिया। अब हमारी समझ में न आये कि उसका क्या करें। गोआ की ऐश तो उसने ली थी और मुसीबत हम लोगों को हो रही थी। आख़िर उसे अस्पताल में ले गये। अस्पताल में वह उसी रात को मर गया।"

"उसके घर-बार का कुछ पता नहीं था?" एक सुनने वाले ने पूछा।

"बोरकर नाम था और बम्बई से आया था। अपना पूरा पता उसने नहीं दिया था। वहाँ पर तो नेक और शरीफ़ बनकर रहता होगा न! यहाँ आया था कि दो चीज़ों के लिए गोआ की मशहूरी है। एक शराब और दूसरे रंडी। अब एक किस्सा और सुनिए...।"

यहाँ पर मुझे फिर से ऊँघ आ गयी।

 

* * *

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. प्रकाशकीय
  2. समर्पण
  3. वांडर लास्ट
  4. दिशाहीन दिशा
  5. अब्दुल जब्बार पठान
  6. नया आरम्भ
  7. रंग-ओ-बू
  8. पीछे की डोरियाँ
  9. मनुष्य की एक जाति
  10. लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
  11. चलता जीवन
  12. वास्को से पंजिम तक
  13. सौ साल का गुलाम
  14. मूर्तियों का व्यापारी
  15. आगे की पंक्तियाँ
  16. बदलते रंगों में
  17. हुसैनी
  18. समुद्र-तट का होटल
  19. पंजाबी भाई
  20. मलबार
  21. बिखरे केन्द्र
  22. कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
  23. बस-यात्रा की साँझ
  24. सुरक्षित कोना
  25. भास्कर कुरुप
  26. यूँ ही भटकते हुए
  27. पानी के मोड़
  28. कोवलम्
  29. आख़िरी चट्टान

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book